Monday, 29 August 2011

☀ जैन तीर्थंकरों का परिचय ☀

☀ जैन तीर्थंकरों का परिचय ☀जैन धर्म के 24 तीर्थंकर है। इसमें से प्रथम तथा अंतिम चार तीर्थंकरों के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिलता है किंतु उक्त के बीच के तीर्थंकरों के बारे में कम ही जानकारी मिलती हैं। निश्चित ही जैन शास्त्रों में इनके बारे में बहुत कुछ लिखा होगा, लेकिन आम जनता उनके बारे में कम ही जानती है। यहाँ प्रस्तुत है एक से बारह तक के तीर्थंकरों का सामान्य परिचय।

(1) आदिनाथ : प्रथम तीर्थंकर 
आदिनाथ को ऋषभनाथ भी कहा जाता है और हिंदू इन्हें वृषभनाथ कहते हैं। आपके पिता का नाम राजा नाभिराज था और माता का नाम मरुदेवी था। आपका जन्म चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी-नवमी को अयोध्या में हुआ। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ती हुई। कैलाश पर्वत क्षेत्र के अष्टपद में आपको माघ कृष्ण-14 को निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- बैल, चैत्यवृक्ष- न्यग्रोध, यक्ष- गोवदनल, यक्षिणी- चक्रेश्वरी हैं।

(2) अजीतनाथजी : द्वितीय तीर्थंकर अजीतनाथजी की माता का नाम विजया और पिता का नाम जितशत्रु था। आपका जन्म माघ शुक्ल पक्ष की दशमी को अयोध्या में हुआ था। माघ शुक्ल पक्ष की नवमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- गज, चैत्यवृक्ष- सप्तपर्ण, यक्ष- महायक्ष, यक्षिणी- रोहिणी है।

(3) सम्भवनाथजी : तृतीय तीर्थंकर सम्भवनाथजी की माता का नाम सुसेना और पिता का नाम जितारी है। सम्भवनाथजी का जन्म मार्गशीर्ष की चतुर्दशी को श्रावस्ती में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तपस्या के बाद कार्तिक कृष्ण की पंचमी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- अश्व, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- त्रिमुख, यक्षिणी- प्रज्ञप्ति।

(4) अभिनंदनजी : चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदनजी की माता का नाम सिद्धार्था देवी और पिता का नाम सन्वर (सम्वर या संवरा राज) है। आपका जन्म माघ शुक्ल की बारस को अयोध्या में हुआ। माघ शुक्ल की बारस को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख शुक्ल की छटमी या सप्तमी के दिन सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- बंदर, चैत्यवृक्ष- सरल, यक्ष- यक्षेश्वर, यक्षिणी- व्रजश्रृंखला है।

(5) सुमतिनाथजी : पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथजी के पिता का नाम मेघरथ या मेघप्रभ तथा माता का नाम सुमंगला था। बैशाख शुक्ल की अष्टमी को साकेतपुरी (अयोध्या) में आपका जन्म हुआ। कुछ विद्वानों अनुसार आपका जन्म चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था। बैशाख शुक्ल की नवमी के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की एकादशी को सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- चकवा, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष- तुम्बुरव, यक्षिणी- वज्रांकुशा है।

(6) पद्ममप्रभुजी : छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभुजी के पिता का नाम धरण राज और माता का नाम सुसीमा देवी था। कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपका जन्म वत्स कौशाम्बी में हुआ। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- कमल, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष-मातंग, यक्षिणी- अप्रति चक्रेश्वरी है।

(7) सुपार्श्वनाथ : सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता का नाम प्रतिस्थसेन तथा माता का नाम पृथ्वी देवी था। आपका जन्म वाराणसी में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की बारस को हुआ था। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमि आपको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- स्वस्तिक, चैत्यवृक्ष- शिरीष, यक्ष- विजय, यक्षिणी- पुरुषदत्ता है।

(8) चंद्रप्रभु : आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु के पिता का नाम राजा महासेन तथा माता का नाम सुलक्षणा था। आपका जन्म पौष कृष्ण पक्ष की बारस के दिन चंद्रपुरी में हुआ। पौष कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष सात को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ती हुई। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- अर्द्धचंद्र, चैत्यवृक्ष- नागवृक्ष, यक्ष- अजित, यक्षिणी- मनोवेगा है।

(9) पुष्पदंत : नवें तीर्थंकर पुष्पदंत को सुविधिनाथ भी कहा जाता है। आपके पिता का नाम राजा सुग्रीव राज तथा माता का नाम रमा रानी था, जो इक्ष्वाकू वंश से थी। मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी को काकांदी में आपका जन्म हुआ। मार्गशीर्ष के कष्णपक्ष की छट (6) को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की तृतीय (3) को आपको सम्मेद शिखर में कैवल्य की प्राप्ती हुई। भाद्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- मकर, चैत्यवृक्ष- अक्ष (बहेड़ा), यक्ष- ब्रह्मा, यक्षिणी- काली है।

(10) शीतलनाथ : दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ के पिता का नाम दृढ़रथ (Dridharatha) और माता का नाम सुनंदा था। आपका जन्म माघ कृष्ण पक्ष की द्वादशी (12) को बद्धिलपुर (Baddhilpur) में हुआ। मघा कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ती हुई। बैशाख के कृष्ण पक्ष की दूज को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कल्पतरु, चैत्यवृक्ष- धूलि (मालिवृक्ष), यक्ष- ब्रह्मेश्वर, यक्षिणी- ज्वालामालिनी है।

(11) श्रेयांसनाथजी : ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथजी की माता का नाम विष्णुश्री या वेणुश्री था और पिता का नाम विष्णुराज। सिंहपुरी नामक स्थान पर फागुन कृष्ण पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म हुआ। श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सम्मेद शिखर (शिखरजी) पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- गेंडा, चैत्यवृक्ष- पलाश, यक्ष- कुमार, यक्षिणी- महाकाली है।

(12) वसुपूज्य : बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य प्रभु के पिता का नाम वसुपूज्य (Vasupujya) और माता का नाम विजया था। आपका जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) को चंपापुरी में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अमावस्या को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मघा की दूज (2) को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ती हुई। आषाड़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपा में आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- भैंसा, चैत्यवृक्ष- तेंदू, यक्ष- षणमुख, यक्षिणी- गौरी है।

(13) विमलनाथ : तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ के पिता का नाम कृतर्वेम (Kritaverma) तथा माता का नाम श्याम देवी (सुरम्य) था। आपका जन्म मघा शुक्ल तीज को कपिलपुर में हुआ था। मघा शुक्ल पक्ष की तीज को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की सप्तमी के दिन श्री सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शूकर, चैत्यवृक्ष- पाटल, यक्ष- पाताल, यक्षिणी- गांधारी।

(14) अनंतनाथजी : चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथजी की माता का नाम सर्वयशा तथा पिता का नाम सिहसेन था। आपका जन्म अयोध्या में वैशाख कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (13) के दिन हुआ। वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्दशी (14) को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद वैशाख कृष्ण की त्रयोदशी के दिन ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- सेही, चैत्यवृक्ष- पीपल, यक्ष- किन्नर, यक्षिणी- वैरोटी है।

(15) धर्मनाथ : पंद्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के पिता का नाम भानु और माता का नाम सुव्रत था। आपका जन्म मघा शुक्ल की तृतीया (3) को रत्नापुर में हुआ था। मघा शुक्ल की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- वज्र, चैत्यवृक्ष- दधिपर्ण, यक्ष- किंपुरुष, यक्षिणी- सोलसा।

(16) शांतिनाथ : जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ का जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हस्तिनापुर में इक्ष्वाकू कुल में हुआ। शांतिनाथ के पिता हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन थे और माता का नाम आर्या (अचीरा) था। आपने ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- हिरण, चैत्यवृक्ष-नंदी, यक्ष- गरुढ़, यक्षिणी- अनंतमती हैं।

(17) कुंथुनाथजी : सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथजी की माता का नाम श्रीकांता देवी (श्रीदेवी) और पिता का नाम राजा सूर्यसेन था। आपका जन्म वैशाख कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हस्तिनापुर में हुआ था। वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वैशाख शुक्ल पक्ष की एकम के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- छाग, चैत्यवृक्ष- तिलक, यक्ष- गंधर्व, यक्षिणी- मानसी है।

(18) अरहनाथजी : अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथजी या अर प्रभु के पिता का नाम सुदर्शन और माता का नाम मित्रसेन देवी था। आपका जन्म मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन ‍हस्तिनापुर में हुआ। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की बारस को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। मार्गशीर्ष की दशमी के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण की प्राप्ति हुई। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- तगरकुसुम (मत्स्य), चैत्यवृक्ष- आम्र, यक्ष- कुबेर, यक्षिणी- महामानसी है।

(19) मल्लिनाथ : उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ के पिता का नाम कुंभराज और माता का नाम प्रभावती (रक्षिता) था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म मिथिला में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को दीक्षा ग्रहण की तथा इसी माह की तिथि को कैवल्य की प्राप्ति भी हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कलश, चैत्यवृक्ष- कंकेली (अशोक), यक्ष- वरुण, यक्षिणी- जया है।

(20) मुनिसुव्रतनाथ : बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के पिता का नाम सुमित्र तथा माता का नाम प्रभावती था। आपका जन्म ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की आठम को राजगढ़ में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कूर्म, चैत्यवृक्ष- चंपक, यक्ष- भृकुटि, यक्षिणी- विजया।

(21) नमिनाथ : इक्कीसवें तीर्थंकर ‍नमिनाथ के पिता का नाम विजय और माता का नाम सुभद्रा (सुभ्रदा-वप्र)था। आप स्वयं मिथिला के राजा थे। आपका जन्म इक्ष्वाकू कुल में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिलापुरी में हुआ था। आषाढ़ मास के शुक्ल की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कैवल्य की प्राप्ति हुई। वैशाख कृष्ण की दशमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- उत्पल, चैत्यवृक्ष- बकुल, यक्ष- गोमेध, यक्षिणी- अपराजिता।

(22) नेमिनाथ : बावीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के पिता का नाम राजा समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था। आपका जन्म श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को शौरपुरी (मथुरा) में यादववंश में हुआ था। शौरपुरी (मथुरा) के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को गिरनार पर्वत पर कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को आपको उज्जैन या गिरनार पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शंख, चैत्यवृक्ष- मेषश्रृंग, यक्ष- पार्श्व, यक्षिणी- बहुरूपिणी।

(23) पार्श्वनाथ : तेवीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता का नाम राजा अश्वसेन तथा माता का नाम वामा था। आपका जन्म पौष कृष्ण पक्ष की दशमी को वाराणसी (काशी) में हुआ था। चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ही कैवल्य की प्राप्ति हुई। श्रावण शुक्ल की अष्टमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सर्प, चैत्यवृक्ष- धव, यक्ष- मातंग, यक्षिणी- कुष्माडी।
(24) महावीर : चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म नाम वर्धमान, पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला (प्रियंकारिनी) था। आपका जन्म चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी के दिन कुंडलपुर में हुआ था। मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा वैशाख शुक्ल की दशमी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। 42 वर्ष तक आपने साधक जीवन बिताया। कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन आपको पावापुरी पर 72 वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सिंह, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- गुह्मक, यक्षिणी- पद्मा सिद्धायिनी।











~*~ Trishla mata swapnas (Dreams) & Dream Indicated Meanings ~*~


~*~  Trishla mata swapnas (Dreams) & Dream Indicated Meanings ~*~ 


Trishala also known as Queen Trishala, Mother Trishala, Trishala Devi, Priyakarini, or Trishala Mata was the Mother of Mahavira, the 24th Jain Tirthankara.
Trishala was a member of the Kshatriya (warrior) caste, the same caste as the mother of the Buddha. Like her son Mahavira, she was born into royalty. She was the eldest daughter of Chetaka, the King of the republic of Vaishali.eldest daughter. Trishala had seven sisters, one of whom was initiated into the Jain order of ascetics while the other six married famous kings, including King Bimbisara of Magadha and Mahavira's own brother, Nandivardhana. She and her husband King Siddharth of Kundgraam were followers of Parshvanath, the 23rd Jain Tirthankar. According to Jain texts, Trishala carried her son for nine months and seven and a half days during the sixth century BC.

After having these dreams she woke her husband King Siddharth and told him about the dreams. The next day Siddharth summoned the scholars of the court and asked them to explain the meaning of the dreams. According to the scholars, these dreams meant that the child would be born very strong, courageous, and full of virtue.



1st Swapna: Elephant
The first dream Queen Trishala had was of an Elephant. It was a big, tall and impetuous elephant, with four tusks. It was an auspicious elephant, and was endowed with all the desirable marks of excellence.

This dream indicated that Queen Trishala would give birth to a child with exceptionally good character. The four tusk signified that he would guide the spiritual chariot with its four components: monks, nuns, laymen and laywomen.

2nd Swapna: Bull
The second dream Queen Trishala had was of a Bull. The bull was noble, grand, and had a majestic hump. It had fine, bright, and soft hairs on its body. Its horns were superb and sharply-pointed.

This dream indicated that her son would be highly religious and spiritual teacher. He would help cultivate religion.

3rd Swapna: Magnificent Lion
The third dream Queen Trishala had was of a Magnificent Lion. His claws were beautiful and well poised. The lion had a large well-rounded head and extremely sharp teeth. His lips were perfect and his eyes were sharp and glowing. His tail was impressively long and well shaped. Queen Trishala saw this lion descending towards her and entering her mouth.

This dream indicated that her son would be as powerful and strong as the lion. He would be fearless, almighty, and capable of ruling over the world.

4th Swapna: Goddess Laxami
The fourth dream Queen Trishala had was of the Goddess Laxami, the goddess of wealth, prosperity and power. She was seated on lotus and wore rows of pearls interlaced with emeralds and a garland of gold. A pair of earrings hung over her shoulders with dazzling beauty.

This dream indicated that her son would enjoy great wealth and splendor. He would be a Tirthankar, the supreme benefactor of all.

5th Swapna: Beautiful Garland
The fifth dream Queen Trishala had was of a Beautiful Garland descending from the sky. It smelled of mixed fragrances of different flowers. These flowers bloomed during all different seasons. The whole universe was filled with their fragrance.

This dream indicated that the fragrance of her son's teaching will spread throughout the entire universe and he would be respected by all.

6th Swapna: Full Moon
The sixth dream Queen Trishala had was of a Full Moon. It was a very auspicious sight. The moon was at its full glory. It awoke the lilies to full bloom. It was as bright as a star.

This dream indicated that the child would lessen the suffering of all living beings. He would bring peace to the world. He would help the spiritual progress of humanity at large.

7th Swapna: Bright Sun
The seventh dream Queen Trishala had was of the Bright Sun. The sun was shining and destroying darkness. It was as bright as the flames of a forest fire. The sun rose and ended the evil activities of the creatures who thrive at night.

This dream indicated that her son would have supreme knowledge and would dispel the darkness of delusions from the masses.

8th Swapna: Flag (Dhawaj)
The eighth dream Queen Trishala had was of a Large Flag flying on a golden stick. The flag fluttered softly and auspiciously in the gentle breeze. It attracted the eyes of all. A radiant lion was pictured on it.

This dream indicated that her son would carry the banner of religion. He would reinstate the religious order throughout the Universe.

9th Swapna: Vase
The ninth dream Queen Trishala had was of a Golden Vase filled with pure water. It was a magnificent, beautiful, and bright vessel. It was decorated with garland

This dream indicated that her son would be perfect in all virtues and would be full of compassion for all living beings. He would be a supreme religious personality.

10th Swapna: Lotus Lake
The tenth dream Queen Trishala had was of a Lotus Lake. Thousands of lotuses were floating on the lake, and they all opened at the touch of the sun's rays. The lotuses had a very sweet fragrance.

This dream indicated that her son would be beyond worldly attachment. He would help liberate human beings who were tangled in the cycle of birth, death, and misery.

11th Swapna: Ocean
The eleventh dream Queen Trishala had was of an Ocean. Its water rose in all directions to great heights. The wind blew gently and created waves.

This dream indicated that her son would have a serene and pleasant personality. He will escape from life on the ocean of birth, death and misery and will achieve infinite perception and knowledge. This will lead his soul to Moksha (liberation).

12th Swapna: Celestial chariot
The twelfth dream Queen Trishala had was of a Celestial chariot. The chariot resounded with celestial music. It was saturated with the intoxicating aroma of incense.

This dream indicated that all of the Angels in heaven would respect, honor, and salute her son's spiritual teachings and they would obey him.

13th Swapna: Big Heap of Jewels
The thirteenth dream Queen Trishala had was of a Big Heap of Jewels. It was a mixture of all types of gems and precious stones.

This dream indicated that her son would have infinite virtues and wisdom and he would attain supreme spiritualism.

14th Swapna: Smokeless Fire
The fourteenth dream Queen Trishala had was of a Smokeless Fire. The fired burned with great intensity, but there was no smoke.

This dream indicated that her son would reform and restore religious order. He would remove blind faith and orthodox rituals. Further he would burn or destroy his karmas and attain salvation.

Janam Vanchan
To summarize all these dreams, the child to be born would be very strong, courageous, and filled with virtues. He would be very religious and would become a great king or a spiritual leader. He would reform and restore religious order and guide all the creatures of universe to salvation. He would also be liberated. Lord Mahavira was born on the thirteenth day of the bright half of the month Chaitra, five hundred and fourty-three years brfore Vikram Era or in 599 B.C. 




Thursday, 24 February 2011

:~ Meaning Of Ashta Prakari Puja :~

Meaning Of Ashta Prakari Puja                       
      Generally Jains use the following eight items to perform puja of a
      Tirthankara in the temple.  Symbolically each item represents a
      specific religious virtue and one should reflect on it while
      performing puja.

            1. Jala Puja:        Water
            2. Chandan Puja:     Sandal-wood
            3. Pushpa Puja:      Flower
            4. Dhup Puja:        Incense
            5. Dipak Puja:       Candle
            6. Akshat Puja:      Rice
            7. Naivedya Puja:    Sweet food
            8. Fal Puja:         Fruit


      1. Jala Puja: (Water)
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      Water symbolizes the ocean.  Every living being continuously
      travels through life's ocean of birth, death, and misery.  This
      puja reminds that one should live his life with honesty,
      truthfulness, love, and compassion towards all living beings.  This
      way one will be able to cross life's ocean and attain liberation
      (Moksha).  This is known as samyak-darshana, samyak-jnana, and
      samyak-charitrya in the Jain religion.

      2. Chandan Puja: (Sandal-wood)
      ------------------------------
      Chandan symbolizes knowledge (jnana).  By doing this puja, one
      should thrive for right knowledge.  Jainism believes that the path
      of knowledge is the main path to attain Moksha or liberation.
      Bhakti or devotion helps in the early stages of one's effort for
      liberation.

      3. Pushpa Puja: (Flower)
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      The flower symbolizes conduct.  Our conduct should be like a
      flower, which provides fragrance and beauty to all living beings
      without discrimination.  We should live our life like flowers full
      of love and compassion towards all living beings.

      4. Dhup Puja: (Incense)
      -----------------------
      Dhup symbolizes monkhood life.  While burning itself, incense
      provides fragrance to others.  Similarly, true monks and nuns spend
      their entire life selflessly for the benefit of all living beings.
      This puja reminds that one should thrive for a ascetic life.

      5. Dipak Puja: (Candle)
      ------------------------
      The flame of dipak represents a pure consciousness, i.e.  a soul
      without any bondage of a karma or a liberated soul.  In Jainism,
      such a soul is called a Siddha or God.  The ultimate goal of every
      living being is to become liberated.  By doing this puja one should
      thrive to follow five great vows; non-violence, truthfulness,
      non-stealing, chastity, and non-possession.  Ultimately these vows
      will lead to liberation.

      6. Akshat Puja: (Rice)
      ----------------------
      Rice is a kind of grain which is nonfertile.  One cannot grow rice
      plants by seeding rice.  Symbolically, it means that rice is the
      last birth.  By doing this puja one should thrive to put all the
      efforts in life in such a way that this life becomes one's last
      life, and after the end of this life one will not be reborn again.

      7. Naivedya Puja: (Sweet food)
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      Naivedya symbolizes tasty food.  By doing this puja, one should
      thrive to reduce or eliminate attachment to tasty food.  Healthy
      food is essential for survival, however one should not live for
      tasty food.  Ultimate aim in one's life is to attain a life where
      no food is essential for survival.  That is the life of a liberated
      soul who lives in Moksha for ever in ultimate blissful state.

      8. Fal Puja: (Fruit)
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      Fruit is a symbol of Moksha or liberation.  If we live our life
      without any attachment to worldly affairs, continue to perform our
      duty without any expectation and reward, be a witness to all the
      incidents that occur surrounding us, truly follow monkhood life,
      and have a love and compassion to all living beings, we will attain
      the fruit of liberation.  This is the last puja symbolizing the
      ultimate achievement of our life.

तीर्थंकर कौन?



तीर्थंकर कौन?



इस अनादि अनन्त संसार में जीव विभिन्न योनियों में परिक्रमण करता हुआ कभी देवगति,कभी तिर्यच,कभी मनुष्य और कभी नरक गति के सुख-दुख का भोग करता रहता है.
जीव के सुख-दुख और जन्म-मरण का मुख्य कारण है, उसके भीतर रहे हुये राग और द्वेष के संस्कार या परिणाम । राग-द्वेष के परिणामों के कारण वह शुभ-अशुभ कर्मों का बंधन करता है और उन शुभाशुभ कर्मों के फ़लस्वरूप विभिन्न योनियों/गतियों में परिक्रमण करता है.
प्रत्येक जीव अनन्त शक्तियों का पुंज है। ज्ञान का अक्षय प्रकाश तथा सुख एवं आनन्द का अनान्त स्त्रोत आत्मा में निहित है। ज्ञान का एवं आनन्द का निज-स्वभाव है परन्तु जन्म-जन्मांतरों से अज्ञान एवं मोह में डूबे रहने के कारण आत्मा अपनी अनन्त शक्तियों को प्रकट करने का पर्याप्त पुरूषार्थ नहीं कर पाता। पुरूषार्थ करता भी है, राग-द्वेष के संस्कारों की सघनता के कारण उसका पुरूषार्थ पूर्ण सफ़ल नहीं हो पाता। इसलिये आवश्यकता है – राग-द्वेष की व्रत्तियों पर नियंत्रण करने की।
आत्मा जब निज-स्वरूप का बोध कर लेता है तो स्वयं की शक्ति को पहचान लेता है और धीरे-धीरे मोह एवं राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने का भी प्रयत्न करता है। राग-द्वेष को समूल नष्ट करने की यह दीर्घकालीन साधना ही संयम एवं समता का मार्ग है। आत्मा ,जब अपने प्रबल पुरूषार्थ से , विविध प्रकार की तप-ध्यान-समभाव आदि की साधना द्वारा मन की राग-द्वेषात्मक ग्रंथियों(गाँठों) को क्षीण करने लगता है,तब वह निर्ग्रन्थ बनता है।
निर्ग्रन्थ-भाव में रमण करते हुये आत्मा एक दिन राग-द्वेष का संपूर्ण क्षय कर मोह को जीत लेता है। मोह को जीतने के कारण
आत्मा “जिनपद” को प्राप्त करता है।
जिन का अर्थ है- विजेता ।
जिसके राग-द्वेष नष्ट हो गये ।मोह एवं अज्ञान का समूल नाश हो गया ।मोहनीय ,ज्ञानवरण, दर्शनावरण और अन्तराय एन चार घातिया कर्मों का क्षय हो गया वह आत्मा वीतराग,’जिन’,सर्वज्ञ या केवली कहलाता है
कोई भी भव्य आत्मा “जिन-पद” प्राप्त कर सकता है।सर्वज्ञ बन सकता है,परम-आत्मा अर्थात परमात्मा बन सकता है,किन्तु तीर्थंकर हर कोई आत्मा नहीं बन सकता।क्योंकि तीर्थंकर एक विशेष पुण्य-प्रक्रति का परिणाम है।
जो परमात्मा केवल ज्ञानी अरिहंत देव अपनी वाणी द्वारा अहिंसा,सत्य आदि धर्म रूप तीर्थ की स्थापना करते हैं,अथवा साधु-साध्वी,श्रावक-श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना करके धर्म का प्रवर्त्तन करते हैं,वे विशिष्ट अतिशयधारी जिन भगवान “तीर्थंकर” कहलाते हैं


STORY OF JAIN GODESS PADMAVATI:

Dharnendra - Padmavati 
Once a person named Kamath, who pursued severe penanaces, was under going, "Panchagni Penance" Prince Parshwanath reached there. There was fore all over the flames reached the sky. But, Prince Prarshwakumar so from his divinity, saw that a pair of snakes were getting burnt in one of the woods. Prince Parshwanath, cut one of the woods & out came the pair of snakes burning. Prince Parshwanath told them, "Namashkar Mahamantra" & requested them not to get angry with the tapaswi. At that moment, both the snakes passed away. Later on, they became the god of snakes - Dev Dharnendra & Devi Padmavati.



~* શ્રી પદ્માવતી દેવી *~જૈન ધર્મના અતિ લોકપ્રિય અને શ્રેષ્ઠ શાસનાદેવી તરીકે આરાધાયા છે.~*શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવંત*~ના શાસનાદેવી નિમાયા પછી શ્રી પદ્માવતીજી સદા જાગ્રત રહ્યાં છે.‌ ‌

~STORY BASED ON 23RD JAIN LORD SHRI PARSHVANATH~



~STORY BASED ON 23RD JAIN LORD SHRI PARSHVANATH~




About 3000 years ago, King Ashwasen was ruling over the Kingdom of Varanasi, which is also known as Banaras, situated on the bank of Holy River Ganga. They had a son named Parshva Kumar. Parshva Kumar later became the 23rd Tirthankara Parshvanath of present age (Avasarpini).
At that time there was a mendicant named Kamath. He had lost his parents in childhood and was raised as an orphan. Being disgusted of his miserable life, he had become a monk and was undergoing severe penance. He came to Varanasi to perform a Panchaagni (five fires) penance. Many people were impressed by his penance and therefore worshipped Kamath. When young prince Parshva kumar came to know this, he realized the violence of living beings involved in a fire. He came there and tried to dissuade Kamath from the sacrificial fire.
Kamath did not agree that life of any being was at stake because of his ritual. By his extra sensory perception, Parshva kumar could see that there was a snake in the wood that was put in the sacrificial fire. He asked his men to take out that wood and to shear it carefully. To the surprise of the onlookers, a half burnt snake came out of the burning piece of wood. The snake was burnt so badly that he died. Parsvha kumar recited the Navakar Mantra for the benefit of the dying snake, who was reborn as Dharanendra, the lord of Asurkumars. Kamath became very annoyed by this interference but was unable to do anything at that time. He started observing a more severe penance and at the end of his life, he was reborn as Meghmali, the lord of rain.
Observing the miseries that living beings had to experience, Parshvakumar developed a high degree of detachment. At the age of 30, he renounced all his possessions and family and became a monk. Later on, he was known as Parshvanath. He spent most of his time meditating in search of ultimate bliss for all.
Once, while he was in meditation, Meghmali saw him. He recalled how Parshvanath had interfered in his penance in an earlier life. He decided to take revenge. By his supernatural power, he brought forth all kinds of fierce and harmful animals like elephants, lions, leopards, snakes etc. As Lord Parshvanath stayed in meditation unperturbed, Meghmali brought forth heavy rains. The rainwater touched the feet of Parshvanath and started accumulating. It came up to his knees and then to his waist and in no time, it came up to his neck.
Dharanendra noticed that Parshvanath, his benefactor, was going to drown in rising flood water. He immediately came there and placed a quick growing lotus below the feet of the Lord so that he could stay above water. Then he spread his fangs all across the head and the sides of the Lord in order to protect him from pouring rain. Dharanendra then severely reproached Meghmali for his wretched act and asked him to stop the rain. All efforts of Meghmali to harass the Lord were thus in vain. He was disappointed and realized that he was unnecessarily creating trouble for the graceful, merciful Lord. He withdrew all his supernatural power and fell at the feet of the Lord with a sense of deep remorse. He sincerely begged the Lord to forgive him for his evil acts.


* DHARMA CHAKRA *


* DHARMA CHAKRA *




The wheel in the center represents one time cycle, which is divided in two half cycles. In each half cycle of the time, there are 24 Tirthankars who expound the path of purification. So continuously goes on the time wheel of religion. It also shows vegetation, animals, Jain monk and Jain nun. This represents that all souls are equal and they should be treated with equanimity.